राजस्थान के लोक वाद्य यंत्र

  • राजस्थान का लोक संगीत किसी न किसी वाद्य से जुड़ा हुआ है। कई देवियों व जातियों के साथ भी विशेष वाद्य जुड़े हुए हैं।
  • पाबूजी की कथा के साथ रावणहत्था, कैलादेवी के मेले में नगाड़ा बजाया जाता है। इस प्रकार राजस्थान में परिवेश, स्थिति एवं भावों के अनुरूप लोक वाद्यों का विकास हुआ है। जोधपुर में लोक वाद्यों का संग्रहालय स्थित है।

सुषिर वाद्य यंत्र

शहनाई

  • शहनाई शीशम या सागवान की लकड़ी से बनी होती है।
  • इसकी आकृति चिलम के समान होती है, जिसमें आठ छेद होते हैं।
  • इसे बजाते समय हमेशा मुँह में साँस रखनी पड़ती है, इसलिए वादक नाक से साँस लेते हैं।
  • यह मांगलिक अवसरों पर विशेष रूप से बजाई जाती है। लोक नाट्यों में भी इसका वादन होता है।
  • फूंक देने पर इसमें मधुर स्वर निकलता है।
  • बिस्मिला खाँ भारत के प्रसिद्ध शहनाई वादक थे, जिन्हें शहनाई वादन के लिए 2001 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

बाँसुरी

  • बाँसुरी बाँस, पीतल या अन्य किसी धातु की बनाई जाती है।
  • इसमें पोली नली में स्वरों के लिए छह छेद बनाए जाते हैं, जिनकी दूरी निश्चित होती है।
  • फूंक देने के लिए एक छेद मुँह की ओर होता है। यह एक प्राचीन लोकवाद्य है।
  • हरिप्रसाद चौरसिया एवं पन्नालाल घोष प्रसिद्ध बाँसुरी वादक हैं।

अलगोजा

  • राजस्थान का राज्य लोक वाद्य यंत्र अलगोजा है।
  • अलगोजा राजस्थान का प्रसिद्ध लोक वाद्य है, जो बाँसुरी के समान होता है।
  • बाँस की नली के ऊपरी मुख को छीलकर उस पर लकड़ी का एक गट्टा चिपका दिया जाता है।
  • नली में चार से सात तक छेद किये जाते हैं जिनकी दूरी स्वरों की शुद्धता के लिए निश्चित होती है।
  • वादक दो अलगोजे अपने मुँह में रखकर एक साथ बजाता है।
  • एक अलगोजे पर एक-सी ध्वनि बजती रहती है तथा दूसरे पर भिन्न-भिन्न स्वर निकाले जाते हैं।
  • जयपुर ग्रामीण के पदमपुरा गाँव के प्रसिद्ध कलाकार रामनाथ चौधरी नाक से अलगोजा बजाते हैं।
  • अलगोजा वाद्य जैसलमेर, जोधपुर, बाड़मेर, बीकानेर, जयपुर, सवाई माधोपुर एवं टोंक आदि में अधिक लोकप्रिय हैं।
  • इसका प्रयोग भील एवं कालबेलियाँ जातियाँ अधिक करती हैं।

पूंगी

  • पूंगी घीया या एक विशेष प्रकार के तुम्बे से बना होता है। तुम्बे का ऊपरी हिस्सा लम्बा व पतला तथा नीचे का हिस्सा गोल होता है। तुम्बे के निचले हिस्से में छेद करके बाँस की दो नलियाँ लगा दी जाती हैं। इन नलियों में स्वरों के छेद होते हैं।
  • अलगोजे के समान ही पूंगी में भी एक नली में स्वर कायम किया जाता है और दूसरी नली में स्वर निकाले जाते हैं।
  • पूंगी कालबेलिया जाति का प्रमुख वाद्य यंत्र है।

नड़

  • नड़ लगभग ढाई फीट लम्बा वाद्य यंत्र होता है, जो कैर की लकड़ी से बना होता है।
  • बाँसुरीनुमा नड़ में चार से छह छेद होते हैं। पश्चिमी राजस्थान के चरवाहों एवं भोपों में न नड़ वाद्य लोकप्रिय है।
  • जैसलमेर का कर्णा भील ख्याति प्राप्त नड़ वाद्य का कलाकार है।

तुरही

  • तुरही चिलम की आकार का ताँबे या पीतल से बना वाद्य यंत्र होता है।
  • प्राचीन व मध्यकाल में इसे युद्ध का वाद्य यंत्र माना जाता था।

शंख

  • शंख एक समुद्री जीव का कवच (खोल) होता है। इसकी आवाज बड़ी गम्भीर और दूर तक जाती है।
  • महाकाव्यकाल में युद्ध की शुरुआत शंख बजाकर की जाती थी।
  • कृष्ण का पाँचजन्य शंख प्रसिद्ध है।
  • यह वाद्य यंत्र अक्सर मंदिरों में प्रातःकाल और सायंकाल आरती के समय बजाया जाता है।

बाँकिया

  • पीतल से निर्मित यह वाद्य यंत्र वक्राकार होने के कारण बाँकिया कहलाता है।
  • मांगलिक अवसरों पर व त्योहारों पर विशेष दिनों में मंदिरों में ढोल के साथ बाकिया बजाया जाता है।
  • गाँवों में सरगरा जाति के लोग बाँकिया बजाते हैं।

भूगल

  • पीतल का बना भूगल वाद्य यंत्र लगभग तीन हाथ लंबा होता है।
  • इसकी आकृति बाँकिया के समान होती है। इसे भेरी भी कहा जाता है।
  • इसे रण क्षेत्र में भी बजाया जाता है। यह मेवाड़ की भवाई जाति का प्रमुख वाद्य यंत्र है।

मोरचंग

  • मोरचंग वाद्य यंत्र मोर की आकृति का होता है, जो लोहे या पीतल से बना होता है।
  • इसके मध्य एक मजबूत पतला तार होता है।
  • एक सिरा मुँह में रखकर उसे श्वास दी जाती है और दूसरे सिरे पर अंगुली से आघात किया जाता है।
  • चरवाहे पशु चराते समय मनोरंजन के लिए यह वाद्य बजाते हैं।

मशक

  • मशक चमड़े की सिलाई करके बनाया जाता है।
  • इसमें वादक एक ओर मुँह से हवा भरता है व नीचे की ओर लगी हुई नली से स्वर निकालता है।
  • इसकी ध्वनि पूंगी की तरह होती है। तीस-चालीस वर्ष पूर्व विवाहादि अवसरों पर मशक का प्रयोग होता था।
  • वर्तमान में यह पुलिस व सुरक्षा बलों के बैंड का प्रमुख वाद्य यंत्र है।

सिंगी

  • सिंगी वाद्य यंत्र सींग के आकार का पीतल की चद्दर का बना होता है।
  • साधु-संन्यासी ईश्वर-स्मरण के पश्चात् इस वाद्य यंत्र का प्रयोग करते हैं।
  • इसे युद्ध के समय बजाये जाने के कारण रणसिंगा भी कहा जाता है।

सुरणाई

  • सुरणाई शहनाई से मिलता-जुलता वाद्य यंत्र है जो एक सिरे से पतला व आगे कीपनुमा होता है।
  • लंगा तथा ढोली जाति मांगलिक अवसरों पर सुरणाई वाद्य बजाती है। पेपे खाँ (जैसलमेर) प्रसिद्ध सुरणाई वादक हैं।

अवनद्ध वाद्य यंत्र

मृदंग (पखावज)

  • मृदंग (पखावज) को बीजा, सुपारी या वट की लकड़ियों को खोखला करके उस पर बकरे की खाल मढ़कर बनाया जाता है।
  • इसका मुँह एक तरफ से चौड़ा और दूसरी ओर से संकरा होता है।
  • इसके दोनों ओर बीच में स्याही लगाई जाती है और हाथ से आघात करके बजाया जाता है।
  • गाँवों में कीर्तन के समय मृदंग का अधिकांशतः प्रयोग होता है।
  • राजस्थान में रावल जाति के लोग नृत्य के साथ इसको बजाते हैं।

ढोल

  • राजस्थानी लोक वाद्यों में ढोल सर्व प्रचलित वाद्य यंत्र है।
  • ढोल लोहे या लकड़ी के गोल घेरे पर दोनों तरफ चमड़ा मढ़कर बनाया जाता है।
  • इस पर लगी डोरियों को कड़ियों के सहारे खींचकर इसे कसा जाता है।
  • वादक इसे गले में लटकाकर लकड़ी के डंडे से बजाता है। इसे मांगलिक अवसर व तीज-त्योहारों पर अधिक बजाया जाता है।
  • भीलों के गैर नृत्य, शेखावाटी के कच्छी घोड़ी नृत्य और जालौर के ढोल नृत्य में ढोल वाद्य का प्रयोग होता है।

ढोलक

  • ढोलक लकड़ी को खोखला करके इसके दोनों ओर चमड़ा मढ़कर बनाई जाती है।
  • यह ढोल का ही छोटा रूप है। इसके दोनों पुड़े लगभग समान व्यास के होते हैं।
  • इस पर लगी डोरियों को कड़ियों से खींचकर कसा जाता है। यह दोनों हाथों से बजाई जाती है।
  • नट लोग एक ओर डण्डे से और दूसरी ओर हाथ से इसे बजाते हैं।
  • ढोलक पर सब प्रकार की तालें बजाई जाती हैं।
  • नगारची, साँसी, कंजर, ढाढ़ी, मीरासी, कव्वाल, भवाई, बैरागी और साधु संत भजन-कीर्तन के समय इसे बजाते हैं।

राजस्थान के लोक वाद्य यंत्र Part – 1
राजस्थान के लोक वाद्य यंत्र Part – 3

2 thoughts on “राजस्थान के लोक वाद्य यंत्र Part – 2”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Verified by MonsterInsights